मनुष्य मात्र को दीर्घ याने लंबा और स्वस्थ जीवन चाहिए। उसके लिए शॉर्टकट भी चाहिए। क्या ऐसा संभव है? जी हां, यह संभव है लेकिन एक शर्त है, इसके लिए हमें अपनी आदतों को थोड़ा बदलना होगा। आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या व ऋतुचर्या को समजना होगा। अपनी प्रकृति के अनुसार अपनाना होगा। तब जीवन के असली आनंद का अनुभव होगा। इतना ही नहीं तंदुरुस्ती और दीर्घायु भी प्राप्त होगा।
दिनचर्या एवं ऋतुचर्या को समझाइये
मुझे एक मित्र ने कहा की दिनचर्या एवं ऋतुचर्या को समझाइये। ये कैसी होनी चाहिए? तो दोस्तों, हमारे ऋषि मुनीयों ने बहुत ही सरलता से हमे दिनचर्या ओर ऋतुचर्या के बारे में समजाया हैं। हमारे प्रत्येक पर्व एवं त्योहार मनुष्य के आरोग्य को ध्यान मे रखकर बनाए गए हैं।
तोआइए समजते है की दिनचर्या क्या है?
दिनचर्या व ऋतुचर्या क्या है?
स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी के विकारों की शांति करना आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है। आयुर्वेद एक चिकित्सा शास्त्र ही नहीं अपितु जीवन विज्ञान है। आयुर्वेद के अनुसार आहार-विहार दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या और सदाचार के आचरण से मनुष्य सर्वदा स्वस्थ रहता है।
आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति को नित्य सो कर उठने के बाद जो कर्म करने चाहिए वह इस प्रकार है।
आयुर्वेद के अनुसार सुबह जल्दी उठने की महिमा : निद्रा त्याग
स्वस्थ व्यक्ति को सूर्योदय से डेढ़ घंटा पहले ब्रह्म मुहूर्त में जागना चाहिए। इस समय वातावरण प्रदूषण रहित होता है। इस समय वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा भी सर्वाधिक होती है। प्रकृति अपनी सारी शक्ति प्रत्येक पेड़, पौधे, वनस्पति एवं प्राणी मात्र को ऊर्जा देने हेतु ताज़गी के रूप में बरसाती है। इससे हमारे शरीर में नई शक्ति उत्साह, उमंग का संचार होता है।
ईश्वर का स्मरण ध्यान
मन को एकाग्र चित्त बनाने के लिए, मानसिक तनाव दूर करने के लिए और ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए हमें प्रातः काल इष्ट देव का स्मरण एवं ध्यान करना चाहिए।
उषः पान
हो सके तो एक तांबे के बर्तन में स्वच्छ पीने का पानी रात को ढक कर रख दे। सुबह निद्रा त्याग के पश्चात उसे अथवा मटके का ताजा एक से चार गिलास पानी पीना चाहिए। इसे उषः पान कहते हैं। इसे पीने से शरीर में से जहरी तत्व बाहर निकलते हैं। मलाशय से मल के निष्कासन में सुगमता रहती है।
मल मूत्र विसर्जन
मलमूत्रादि के प्राकृत वेग उपस्थित होने पर सर्वप्रथम इन्हें बाहर प्रवृत्त करना चाहिए। शरीर में उपापचय के कारण उत्पन्न बाक़ी कचरे का त्याग करने से शरीर में हल्केपन का अनुभव होता है। कहावत है कि पेट साफ तो रोग माफ। यह सच है की अधिकतर रोग पेट की खराबी से ही पैदा होते हैं। पर हां, मल की प्रवृत्ति सहज होनी चाहिए। उसे बाहर की ओर प्रवृत्त करने के लिए बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि कभी कब्ज की शिकायत हो तो सुबह खाली पेट आधा चम्मच हरितकी (हरड़) चूर्ण अथवा गोली लेने से पेट साफ होता है। सर्दी की मौसम में ताजा दो आंवला या उसका रस पीने से भी कब्ज की शिकायत दूर होती है।
दांत की सफाई और मुख प्रक्षालन
मल मूत्र त्याग के पश्चात हाथ पैर मुंह को शुद्ध करने के बाद मुख शुद्धि करना चाहिए। पहले के जमाने में खदिर करंज बबूल नीम तथा बिल्व इत्यादि की टहनी से निर्मित दातुन किया जाता था। आज भी बहुत से लोग दातुन का उपयोग करते हैं। यदि हो सके तो आप भी दातुन करें। अन्यथा नरम ब्रश से दांत की सफाई करें तत्पश्चात जिह्वा (जीभ) और मुख प्रक्षालन करें।
गंडूष (कुल्ला करना)
रोज रोज दातुन करने के बाद तिल के तेल का गंंडूष करना चाहिए। इस प्रयोग से स्वर को बल मिलता है। ओष्ठ नहीं फटते, दांतो की जड़ें मजबूत होती है। जो भी व्यक्ति कंठ्य संगीत से जुड़ा हो, गायक हो उसके लिए यह प्रयोग बहुत ही फ़ायदेमंद है।
गंंडूष करने की पद्धति इस प्रकार है। सुबह में कुछ समय तक धूप में खड़ा रहना चाहिए। तत्पश्चात मुख पूरा भर जाए उतना तिल का तेल मुंह में भर लेना चाहिए। स्मरण रहे इस प्रक्रिया में गले से आवाज़ नहीं निकालनी है। अब आकाश की तरफ मुंह रखकर 5 मिनट तक खड़ा रहना चाहिए। इस दौरान नाक और आँख से पानी निकल सकते हैं। इस प्रक्रिया के बाद मुंह से बाहर निकाला हुआ तिल का तेल किसी पौधे या पेड़ के मूल की तरफ थूक देने से उसे पोषण मिलता है।
इस प्रक्रिया में प्रतिदिन अंदाज से 100 ml तेल का उपयोग होता है। जो भी ऐसा करने में आर्थिक सक्षम ना हो उसे एक मुट्ठी भर तिल लेकर मुंह में तब तक चबाना चाहिए की उसका तेल ना निकल आए। फिर उसे पेट में उतार देना है।
मुंह में छाले पड़े हो या फिर जल गया हो ऐसी स्थिति में गाय के घी अथवा दूध का गंंडूष करने से लाभ होता है। मुख में चिकनापन दूर करने के लिए शहद से गंंडूष करना चाहिए।
नस्य
रोज सुबह नियमित रूप से नासिका (नाक) में दो से तीन बूंद जितना तिल का तेल, देसी गाय का घी अथवा मेडिकल स्टोर में उपलब्ध अणु तेल डालना चाहिए। ऐसा करने से नाक, मस्तक और आँख के रोग नहीं होते हैं। बाल काले और घने होते हैं। सफेद बाल काले होते हैं। चेहरा निर्मल होता है।
अभ्यंग (तेल मालिश)
स्नान करने से पहले संपूर्ण शरीर को तेल मालिश करनी चाहिए। इससे त्वचा कोमल, चमकीली और रोग रहित बनती है। त्वचा में रक्त संचार बढ़ने से विषाक्त तत्व बाहर निकलते हैं तथा त्वचा में झुर्रियाँ नहीं पड़ती।
शरीर के साथ-साथ बालों में भी तेल मालिश करनी चाहिए।
व्यायाम
स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए। सूर्य नमस्कार, एरोबिक, योग तथा अन्य व्यायाम से शरीर में शक्ति तथा रोगप्रतिकारक क्षमता में वृद्धि होती है।
क्षौर कर्म
बाल, दाढ़ी, मुछ, नाखून को नियमित रूप से काटना चाहिए।
उद्वर्तन (उबटन)
सुगंधित द्रव्य और जड़ी बूटियों के चूर्ण से बनाया गया उबटन शरीर पर मालिश करने से मन में प्रसन्नता तथा स्फूर्ति उत्पन्न होती है। उबटन के मालिश से मोटापा भी कम होता है और त्वचा मुलायम तथा चमकदार बनती है। इस तरह का उबटन आयुर्वेदिक दवाइयों के स्टोर में तैयार मिल सकता है। अथवा फार्मूला देखकर सभी द्रव्य को मिलाकर घर पर भी बनाया जा सकता है।
स्नान
दैनिक स्वास्थ्य के लिए स्नान करना अत्यंत आवश्यक है। स्नान करने से शरीर की सभी प्रकार की अशुद्धियां दूर होती है। शरीर के सभी इंद्रियां सक्रिय होती है। रक्त का शुद्धिकरण होता है। शरीर की गर्मी, दुर्गंध, पसीना इत्यादि का नाश होता है। स्नान करते समय गरम पानी सर पर नहीं डालना चाहिए, इससे नुकसान होने की संभावना है।
स्वच्छ वस्त्र धारण
स्वच्छ, सुंदर, आरामदायक, सूती, ऊनी वस्त्र धारण करने से सुंदरता प्रसन्नता एवं आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
आहार – भोजन
भोजन के बारे में आयुर्वेद के महान ग्रंथ ‘चरक संहिता’ के इस श्लोक का अर्थ हमे समजना चाहिए।
तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते।
अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत्।।
अर्थात् : येन आहारेण शरीरम् अनुकलं भवेत् तस्य भक्षणम (सेवनम्)
करणीयम्
यत् च अजातानां विकाराणाम् उत्त्पतिकरं न भवेत्, तत् च नित्यम् प्रयुज्जीत.
मतलब, हमे ऐसे आहार-भोजन का उपयोग करना चाहिए, जो शरीर को अनुकूल हो। जो भोजन रोग को उत्पन न करे हमेशा ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए। अब सवाल होगा की, तो फिर हमे कैसा भोजन करना चाहिए?
शास्त्र के अनुसार स्थल, काल, ऋतु और आदत के अनुसार आहार ग्रहण करना चाहिए। हमे आहार में
- मधुर (Sweet)
- तिक्त (Bitter)
- अम्ल (Sour)
- लवण (Salt)
- कटु (Pungent)
- कषाय (Astringent)
इस प्रकार के छह रस युक्त भोजन लेना चाहिए। हमारा खुराक अत्यंत गरम और अति ठंडा नहीं होना चाहिए। खाना चबा चबा कर खाना चाहिए। भोजन करते समय बातचीत, हँसी-मज़ाक़ करना और टेलीविजन देखना नहीं चाहिए। भोजन के तुरंत बाद शारीरिक, मानसिक श्रम और स्नान नहीं करना चाहिए।
निद्रा
रात्रि में औसत 6 से 7 घंटे नींद लेनी चाहिए। शयन कक्ष अत्यंत स्वच्छ, हवादार और उपद्रवों से मुक्त होना चाहिए। रात में देर से सोने से स्वास्थ्य खराब होता है। खासकर वसंत ऋतु (अप्रैल-मई) में दिन में और रात को देरी से सोना नहीं चाहिए। गर्मी के दिनों में बारिश के दिनों में और शरद ऋतु के दरमियान दिन में कुछ समय तक सोने से नुकसान नहीं होता, बल्कि ठंडी की मौसम में दिन में सोने से श्वास और पाचन तंत्र की बीमारी हो सकती है।
दिनचर्या व ऋतुचर्या का अर्थ
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ऋतु | हिंदू महीनों के नाम | अंग्रेजी महिना |
उत्तरायण
आदान काल शरीर में बल कम होता हैं |
शिशिर | पौष-माघ | दिसंबर मध्य से मध्य फरवरी तक |
बसन्त | फाल्गुन-चैत्र | फरवरी मध्य से अप्रैल मध्य तक | |
ग्रीष्म | वैशाख-ज्येष्ठ | मध्य अप्रैल से मध्य जून तक | |
दक्षिणायन
विसर्ग काल शरीर में रस कस की वृद्धि होती हैं |
वर्षा | आषाढ़-श्रावण | मध्य जून से मध्य अगस्त तक |
शरद | भाद्रपक्ष-आश्विन | मध्य अगस्त से मध्य अक्टूबर तक | |
हेमन्त | कार्तिक-मार्गशीष | मध्य अक्टूबर से मध्य दिसंबर तक |
हमारे देश में मुख्य तीन ऋतु हैं। सर्दी, गर्मी और बरसात। आयुर्वेद में इस काल को इन छः ऋतुओं में बाँटा गया है। इसके दो विभाग हैं। आदान काल और विसर्ग काल। आदान मतलब ले लेना और विसर्ग अर्थात् देना।
- शिशिर
- वसंत
- ग्रीष्म
यह तीनों ऋतुओ उत्तरायण कहते हैं। जो की आदान काल है। आदान काल में बल कम होता हैं।
- वर्षा
- शरद
- हेमंत
यह तीन ऋतुओ को दक्षिणायन याने विसर्ग काल कहा गया हैं। यह काल में सर्दी बढ़ती जाती हैं इस लिए शरीर में रस कस की वृद्धि होती हैं।
ऋतु का संधि काल
प्रत्येक ऋतु का अपना स्वतंत्र स्वभाव और गुण दोष है। पृथ्वी के पट पर जब यह ऋतुए आती है तब जन साधारण पर अपना प्रभाव दिखाती है। जब रितु समाप्त हो जाती है तब उसकी असर भी चली जाती है। फिर आने वाली नई रितु की असर शुरू हो जाती है।
एक ऋतु के जाने और दूसरी ऋतु के आने के बीच के समय को रितु का संधि काल कहा जाता है। संधि काल के दौरान हमारे शरीर पर उसकी क्या असर होती है यह जान लेना अति आवश्यक है। इस विषय में हम एक दूसरे आर्टिकल में विस्तार से चर्चा करेंगे।
दिनचर्या व ऋतुचर्या : शिशिर ऋतु – पौष-माघ – दिसंबर मध्य से मध्य फरवरी तक
शिशिर ऋतु में शरीर में कफ एकत्रित होता है
क्या करें | क्या ना करें |
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दिनचर्या व ऋतुचर्या : बसंत ऋतु – फाल्गुन-चैत्र – फरवरी मध्य से अप्रैल मध्य तक
वसंत ऋतु में कफ का प्रकोप होता है और पित्त शांत होता है।
क्या करें | क्या ना करें |
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दिनचर्या व ऋतुचर्या : ग्रीष्म ऋतु – वैशाख-ज्येष्ठ – मध्य अप्रैल से मध्य जून तक
ग्रीष्म ऋतु में वात एकत्रित होता है।
क्या करें | क्या ना करें |
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दिनचर्या व ऋतुचर्या : वर्षा ऋतु – आषाढ़-श्रावण – मध्य जून से मध्य अगस्त तक
वर्षा ऋतु में वायु का प्रकोप होता है और कफ शांत होता है।
क्या करें | क्या ना करें |
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दिनचर्या व ऋतुचर्या : शरद ऋतु – भाद्रपक्ष-आश्विन – मध्य अगस्त से मध्य अक्टूबर तक
शरद ऋतु में पित्त एकत्रित होता है।
क्या करें | क्या ना करें |
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दिनचर्या व ऋतुचर्या : हेमन्त ऋतु – कार्तिक-मार्गशीष – मध्य अक्टूबर से मध्य दिसंबर तक
हेमंत ऋतु में पित्त का प्रकोप होता है और वायु शांत होता है
क्या करें | क्या ना करें |
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